Imaan Ka Taqaza

ग़ाज़ा की सूरत ए हाल पर ईमान का तकाज़ा

‏اَلسَلامُ عَلَيْكُم وَرَحْمَةُ اَللهِ وَبَرَكاتُهُ‎

उम्मत ए मुहम्मद ﷺ एक जिस्म की तरह है, जिसमे अगर एक उंगली पर भी चोट लगे तो पूरा जिस्म दर्द महसूस करता है, आज उम्मात का एक तबका सब्र की इंतहा से गुजर रहा है और हम तरह तरह के पकवानों का लुत्फ उठा रहे हैं, ज़रा सोचिए जब ये सारा हाल रसूल ए अकरम ﷺ को पोहुचता होगा तो वह तड़प जाते होंगे, आप यक़ीन करें मैं इस वक्त ये सब लिखने की ताब नहीं ला पा रहा हूं, दिल गमगीन है, आंखें नदामत से नम हैं, आखिरत में क्या मूंह दिखायेंगे हम अपने रसूल ﷺ को जिन्होंने अपनी पूरी उम्र में सिर्फ इस उममत की फिक्र की, इसके लिए दुआएं की ओर रोजे महशर भी जो हमारी शफाअत करेंगे हमारे लिए रोएंगे, और वह दिन दूर नही है याद रखो।

सुल्तान सलाउद्दीन अय्यूबी की तड़प

इसी उम्मत के एक फर्द सुल्तान सलाउद्दीन अय्यूबी को देखो की जब उन्हें दूर कहीं किसी मोमिन के परेशान होने की ख़बर मिलती थी, तो वह तड़प जाते थे और महीनों के लिए अपने ऊपर पैर फैला कर आराम करना हराम समझ लेते थे, जब तक उनकी परेशानी दूर न कर दें, उन्हें कैद से न छुड़ा लें बेचैन रहते थे। क्या ईमान थे उनके, अब अपने और उनके ईमान का जायज़ा लें की हमारा ईमान किस दर्जे का है तो शायद आज हमारे ईमान का कोई दर्जा ही न हो क्योंकि वह सिर्फ ख़बर कानों से सुनकर तड़पते थे और हम हालात आंखों से देख कर भी खामोश हैं।

हिम्मत ईमान से आती है

जब एक मुर्गे के सामने दूसरे मुर्गे को काटा जाता है तो वह खुश होता है और चैन की सांस लेता है की मैं बच गया, पर वह नहीं जानता की अगली बारी उसकी है अगर हम गौर करें तो ज़्यादा अच्छे हालात हमारे भी नही हैं, यह समझें की अगला नंबर हमारा है, और हम तो इतने हिम्मत वाले हैं भी नही उनकी आंखों के सामने उनके घर के लोग मरते है तो वो कहते हैं हस्बुनअल्लाहु व नेमल वकील…. उन मासूम बच्चों से पूछो की इजराइली फौज आकर तुम्हे मार देगी तो वह मासूम कहते हैं की हम भी तो मरेंगे, पूछा कैसे– तो छोटे छोटे पत्थरों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं की इनसे मारेंगे, क्योंकि हिम्मत ईमान से आती है उनके ईमान मज़बूत हैं, ईमान मज़बूत तो हिम्मत मज़बूत आप गौर करें क्या हमारे ईमान ऐसे हैं?

रमज़ान का असल मतलब

आज जब हम रमज़ान में तरह तरह की लज़्जतों का लुत्फ ले रहे हैं, वहां घांस भी कम पड़ गई है जिसे खा कर वो मासूम अल्हमदुलिल्ल कहते हैं, अफसोस! हमने रमज़ान को समझा ही नहीं, हमने इस माह ए मुबारक को दस्तरख्वान भरने का महीना समझ रखा है, जबकि यह भूको का एहसास करने, सब्र करने और हौसला दिखाने का इम्तेहान है, सोचो ज़रा जब हौज ए कौसर पर रसूल अल्लाह ﷺ भी होगें, हम भी होंगे और ये मस्जिद ए अक्सा के मुहाफिज, ये फाकेनोश मासूम जो असल में हमारी जिम्मेदारियां वहां पूरी कर रहे हैं, और ऐसे मासूम भी होंगे जिन्हें खिलौने देखने की उम्र में मिसाइल और बमबारी देखने को मिल रही है तब क्या हम उनसे नज़रे मिला पाएंगे।

हम क्या कर सकते हैं

अब आप सोचेंगे की हम आखिर कर क्या सकते हैं हमारी तो वुसअत नही है। जान लो की यह सवाल आप से वो मासूम बच्चे नहीं कर रहे, ये मेरा आप से सवाल है— आप तो पैप्सी, स्प्राइट, और इजराइली प्रोडक्ट्स नही छोड़ पा रहे, दज्जाल तो जन्नत दिखायेगा उसे कैसे नकार पाएंगे, कैसे उसके असीर होने से बचेंगे जब की उसकी आमद बहुत करीब है, हम और आप तो उसके आने से पहले ही उसके असीर बन चुके हैं, उसके पैरोकारों के प्रोडक्ट्स को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना कर।

अभी वक्त है इस माह ए मुबारक के कुछ दिन बाकी हैं, आप सब को अल्लाह का वास्ता, एक तो इनके प्रोडक्ट्स का बॉयकॉट करें ताकि अपनो के कतले आम में आप हिस्सेदार न बने, और रमज़ान की रातों में उनके लिए रो रो कर अल्लाह से दुआ मांगें के अल्लाह उन पर रहम करे, उनकी मदद करे और इस तरह आप उनकी खैरख्वाही में हिस्सेदार बन कर रोज़ ए मेहशर की शर्मिंदगी से बच सकते हैं और इन दोनो कामों में आप का कोई नुकसान नहीं है ना जानी ना माली तो बाराय मेहरबानी इतना तो कर ही लें आप को अल्लाह का वास्ता।

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