एक बेटी का मजबूर बाप

ख़त का उनवान "एक बेटी का मजबूर बाप"

‏اَلسَلامُ عَلَيْكُم  सलाम के बाद अर्ज़ है
मैं एक बदनसीब बाप अपनी कौम के उन अमीर मगरूर दोलत के नशे में चूर ज़मीनी खुदाओ से कहना चाहता हूँ
मैं वो बाप हु जिसके घर में चार मासूम बेटियां अपने गरीब बाप की इज्जत को छुपाए हूए है
मेरी आप सभी से ये इल्तज़ा है कि मेरा काम इतना आसान करदो कि मुझे या मेरी औलाद को किसी के सामने हाथ न फेलाना पड़े बच्चो की शादी के लिए कर्ज ना लेना पड़े, मैं नहीं चाहता मैं मेरी औलाद कर्ज़दार होकर मरे, मुझे हराम कमाने पर मजबूर ना करे, मैं हराम कामाना नहीं चाहता और नाही अपनी औलाद को हराम खिलाना चाहता हूँ मैं हलाल कमाना चाहता हूं और हलाल खिलाना चाहता हूँ
नबी ﷺ ने निकाह को जितना आसान किया है
निकाह को इतना आसान करदो कोई बाप अपनी बेटी को बोझ ना समझे
ये काम इतना आसान करदो मैं बारात का तसव्वुर भी ना करू और बेटी की शादी में किसी दावत ना करू तो कोई मुझे या मेरी औलाद को ताना ना दे
ये एक मजबूर बाप के ख़त का माफहूम लिखा जिसके लिखने में कोई गलती हो गई हो तो अल्लाह माफ करे 

खादिम –डॉ इसरार क़ुरैशी देवबंद

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