एक नज़र मुआशरे पर भी

बात मेरे दिल की काश कि उतर जाए तेरे दिल में

आपका ताल्लुक किसी से कितना ही खराब क्यों न हो मगर शादी और गम यह 2 ऐसे मौके हैं इन पर आपकी सुलह हो ही जाती है मगर लोगों का यह उसूल सिर्फ इंसानों के साथ है अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के साथ नहीं, वहां लोगों का रवैया उल्टा है आप कितने ही नमाज़ रोज़े के पाबंद हों मगर खास तौर से शादी के मौके पर आपका ताल्लुक अल्लाह और रसूल ﷺ से खराब हो जाता है भले ही जुबान से इकरार न करें मगर अमल से गोया यही साबित करते हैं के (नऊजुबिल्लाह) कौन खुदा किसका खुदा हम आजाद हैं जो जी में आएगा वो करेंगे, नाचेंगे, गायेंगे, ढोल, डी.जे./गाने बजाएंगे सुन्नतों का जनाजा निकाल कर रस्म ओ रिवाज लायेंगे,
फिर अगर इनको समझाओ तो कहते हैं के खुशी में तो लोग करते ही हैं हालांकि खुशी और गम यह ऐसी चीजें हैं (जैसा मैंने ऊपर कहा) के इसमें ही तो असल इम्तिहान है ईमान वालों का के खुदा और रसूल ﷺ को याद रखते हैं या भूलते हैं? और खुशी का यह मतलब भी नहीं के आप खुशी में इस घटिया हरकत के जरिए खुदा और रसूल ﷺ को नाराज कर दें…!


दूसरा बहाना होता है के बच्चे या बच्चों के दोस्त ढोल / डी.जे. / स्पीकर्स / डांसर ले आए बच्चों की खुशी या जिद है वगैरह वगैरह जबकि किसी रिश्तेदार को जरा सी तकलीफ अगर उसी औलाद ने उसी शादी के मौके पर देदी तो देखो कैसे दुनिया उलट पलट करके रख देते हैं और उस औलाद से माफी मंगवा के रहते हैं मगर खुदा की इतनी बड़ी नाफरमानियां करने पर खुदा के दर्जनों अहकामात को कदमों तले रौंद कर भी आपको ये एहसास क्यों नहीं होता? तब कहां चला जाता है आपका यह दावा के हम नमाज़ी, रोजेदार हैं खुदा से मुहब्बत करते हैं, कभी कोई गैर मुस्लिम कुरआन की बेहुरमती करदे, गुस्ताखी करदे तो हम लोग गुस्से में आग बगुला हो जाते हैं (जो के होना भी चाहिए) मगर हम तो खुद ही अल्लाह और रसूल के फरमान की खिलाफवर्जी करके नजरंदाज करके जो यह हरकतें कर रहे हैं क्या यह गुस्ताखी के जुमरे में आएगा या नहीं आप अपने दिल से पूछें…. आप मुझसे बेहतर जानते हैं के मुआशरे में क्या क्या खुराफात हो रही हैं… कहीं उबटन लगेगा उसमे मर्द औरत एक जगह जमा होंगे, नाचना गाना होगा, फिर मंढा होगा बरात जाएगी उसमे रोड ब्लॉक कीये जाएंगे, पटाखे जलाए जाएंगे, लोगों को तकलीफें दी जाएंगी, ईजा ए मुस्लिम होगी (मुसलमानों को तकलीफें दी जाएंगी), मस्जिद में हो रही अज़ानों की बेहुरमती होगी, मस्जिदों के सामने ढोल बजेंगे, नाचना होगा, बरात घरों में जूता छुपाई की रस्म होगी, लड़के लड़कियां एक जगह जमा होंगी एक दूसरे से फ्रैंक होंगी, सलामी नाम की वाहियात रस्म होगी, खड़े हो कर खाना खाएंगे, वीडियोग्राफी होगी और ना जाने क्या क्या होता होगा किस किस खुराफात को शुमार कराएं?


जबकि इस्लाम में निकाह सबसे आसान अमल है इसमें लाखों खर्च करके निकाह को ऐसा भारी भरकम अमल बना दिया के किसी गरीब के घर बेटी पैदा हो जाए तो वह उसकी शादी का सोच कर ही कांप जाता है रही सही कसर दहेज में गाड़ियां देने ने पूरी करदी है, इन चीजों को ऐसा लाज़िम कर लिया है के गोया इसके बिना निकाह ही नहीं हो सकता लोगों का बस नहीं चलता नही तो निकाह के अमल को भी खारिज कर दें इस्लाम से उसकी जगह कोई रस्म रख दें।
बातें कड़वी जरूर होंगी मगर हकीकत यही है आज के मुआशरे की… किसी को बुरा लगे तो लगता रहे हमें फर्क नहीं पड़ता… क्योंकि हमें लोगों के अमल से तकलीफ होती है जब लोग मस्जिद के सामने पटाखे जलाते हैं, ढोल बजाते हैं, नाचते हैं, रोड ब्लॉक करते हैं तो इससे हमें भी तकलीफ होती है…और तकलीफ इससे भी ज्यादा तब होती है जब शरीअत जानने का दावा करने वाले लोगों को इन शादियों में शरीक होते देखते हैं वह लोग इन शादियों में शामिल हो कर क्या साबित करना चाहते हैं जिसके बारे में ईमान का सबसे कम दर्जा हज़रत शेख़ ने हदीस के हवाले से फजाइले आमाल में लिखा है के गुनाह को दिल से बुरा समझना चाहिए इससे कम कोई दर्जा नहीं है वह लोग जो शरीअत को जानने का दावा करते हैं कयामत के दिन क्या जवाब देंगे अल्लाह और रसूल को? सोचें क्या जवाब है आपके पास…?
इस तहरीर को दूसरों के साथ पहुंचाएं शायद किसी के दिल पर असर कर जाए…!

लेखक मुफ्ती मुहम्मद जुबैर साहब कासमी
डॉ. इसरार कुरेशी देवबंद
نقل شد

 

 

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